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मन चंगा तो कठौते में गंगा


कबीर के घर रात - दिन साधु -सन्तों का जमघट लगा रहता था
उनके सेवा -सत्कार के लिए उन्हें दिन रात अपना पैतृक काम ( कपड़ा बुनना ) करना पड़ता था 
एक दिन उनका एक मित्र उनसे मिलने आया | उसे देखकर अपने काम मैं लगे - लगे कबीर बोले ,"किया बात यह मित्र ,बड़े खुश दिखाई पड़ रहे हो ?"
"हाँ ,गंगा स्नान के लिए हरिद्वार जा हूँ । बड़े दिनों की इच्छा अब पूरी होने  जा रही है । चलो,तुम्हे भी ले चलूँ । " मित्र बोला ।
"नही ,देख रहे हो न ;काम से फुरसत ही कहाँ  है ?"
"तो ठीक है ,मैं चलता हूँ ,राम-राम । "
इस बात को कई दिन गुजर गए । एक दिन वही मित्र फिर कबीर से मिलने आया ।
कबीर उसे देखकर चहक उठे ,"अरे ! आ गए गंगा स्नान करके । लेकिन तुम खुश नही लग  रहे हो ;किया बात है ?"
"किया करू दोस्त ?गंगा स्नान किया । खूब पुण्य भी कमाया ,लेकिन स्नान के दौरान पत्नी का सोने का कंगन गंगा में  गिर गया ,इसी बात ने सारा मज़ा खराब क्र दिया । "
कबीर ने सिर हिलाया ,"ओहो ,तो यह बात है । "
 कबीर के सामने उस वक्त मिट्टी का एक बड़ा सा कटोरा पड़ा था ,उसमें पानी भरा था । उन्होंने गंगा मैया की जय करते हुए अपनी आँखै बंद की और कटोरे मैं हाथ डालकर कुछ ढूंढने लगे ।
कटोरे के पानी मैं एक तेज़ उबाल आया  और जब कबीर का हाथ बाहर  निकला तो उसमे एक कंगन चमचमा रहा था । वे बोले ,"लो ,यही है न वो कंगन । " 
मित्र ने अचंभे मैं कंपते हुए हाथ आगे बढ़ाया और बोला ,"हाँ -हाँ । "
कबीर बोले ,"मन चंगा तो कठौते में गंगा । "
मित्र उनके चरणों में गिर पड़ा । कबीर ने उसे उठाकर अपने सीने से लगा लिया ।

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