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चमत्कारों से भरी है सिद्ध गोरिया की कहानी



जम्मू कश्मीर के इतिहास में बहुत कुछ अभी भी ऐसा है जिसके मौजूदा स्वरूप को तो सब जानते है परन्तु इसके प्राचीन महत्व से आज भी लोग अंजान है। ऐसा ही एक पवित्र स्थान है बाबा सिद्ध गोरिया जी का। सांबा जिले के सिध-सांचा में स्थित है, जिसे अब स्वांखा केे नाम से जाना जाता है। जहाँ इस पवित्र पर बाबा सिद्ध गोरिया जी का एक विशाल मंदिर व पवित्र सरोवर है जिसमें डुबकी लगाने से लोग रोग मुक्त हो जाते है। मौखिक कथाओं व कुछ पुस्तकों में जो बाबा सिद्ध गोरिया जी के इतिहास के बारे में जानकारी है उसके अनुसार कलयुग में 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में गुरु गोरख नाथ जी के नेतृत्व में उत्तर भारत में “नाथ” समुदाय आया था और यहाँ उन्होंने ऐसे लोगों का इलाज करना शुरू किया जो कई रोगों से पीड़ित थे। वह कच्चे धागे को बाँधते और पवित्र मिट्टी ( जिसे विभूति कहा जाता है) का इस्तेमाल दवा के रूप में करते थे। उन्होंने बहुत सारे जीवन बचाकर क्षेत्र में मानवता का प्रचार किया। उस समय बाबा सिद्ध गोरिया जी गुरु गोरख नाथ जी के शिष्य थे। एक खंड के अनुसार 12 वीं शताब्दी में विक्रम देव जम्मू राज्य पर शासन कर रहे थे और शहर पहाड़ी की चोटी पर स्थित था। उस अवधि के दौरान लोगों के लिए पीने के पानी की भारी कमी थी। राजा विक्रम देव ने लोगों के लिए पानी की व्यवस्था करने के लिए एक कुआं खोदने का आदेश दिया और 150 फीट गहरी खुदाई करने के बाद पानी का कोई निशान नहीं मिला। राजा बहुत निराश हुआ और उसने अपने सभी समर्थक और पंडितों को समाधान के लिए बुलाया और बदले में उन्होंने सामूहिक रूप से राजा को बलि के लिए काले रंग के एक ब्राह्मण लड़के की व्यवस्था करने का सुझाव दिया जिसका कोई वास्तविक भाई नहीं हो। उनकी बात सुनकर राजा हैरान हो गया और उसने मन में सोचा कि वह लोगों के कल्याण के लिए एक कुआँ खोद रहा है, लेकिन यह घटना उसे कल मुश्किल में डालेगी और वह इससे केवल पाप कमाएगा। यह तथ्य है कि राजा हमेशा अपने बेटे से ज्यादा अपने लोगों से प्यार करते हैं। उन्होंने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे पंडितों के कथन अनुसार बच्चा लाएँ। सैनिक इधर-उधर तलाश के लिए निकले लेकिन सभी प्रयास व्यर्थ गए। अंततः जब वे वापस लौट रहे थे तो वे एक लड़के के पास आए, जिसका नाम था “वीरू” था सैनिकों ने उनका पारिवारिक विवरण पूछा। वीरू ने कहा कि उनके पिता को “लड्डा” कहा जाता है और माताओं का नाम “यमुना” है। उन्होंने यह भी बताया कि उनके पिता को पैसे की जरूरत है और शायद वह इस तरह की शर्त के लिए सहमत होंगे। सैनिक वीरू के घर गए और अपने बेटे को बेचने के लिए चर्चा की। लड्ढा ने अपने बेटे को उसके वजन के बराबर पैसे के बदले बेच दिया। उसके बाद अपने घर वीरू ने अपने पिता से कहा कि आप अपने बेटे से प्यार नहीं करते, आप केवल पैसे से प्यार करते हैं। इस अमानवीय सौदे पर उसकी माँ जोर से रोने लगी।
वीरू राजा के सामने लाया और उसने कहा “आप अपनी पसंद का भोजन आज ही ले लें क्योंकि आपको पानी के लिए इस कुएं में कुर्बानी देनी है”, वीरू ने मुस्कुराहट भरे अंदाज में कहा कि राजा मैनें तो उसी दिन खाना छोड़ दिया जिस दिन तूने खुदाई शुरू करवाई थी। उसने राजा को सुझाव दिया कि यदि पानी बिना किसी के बलिदान के मिल जाएं तो क्या यह उन्हें स्वीकार होगा? राजा मुस्कुराया और सवाल किया कि यह कैसे संभव है? किसी भी तरह से अगर यह बिना किसी बलिदान के होता है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं चाहता हूं कि पीने का पानी निकले। मूल रूप से वीरू गुरु गोरख नाथ जी के शिष्य थे और उन्होंने अपनी आंखें बंद करने के बाद अपने गुरु को उस कठिनाई को दूर करने के लिए याद किया। कहा जाता है कि गुरु गोरख नाथ जी ने वीरू को अपनी उंगली से एक बूंद खून डालने का आदेश दिया। वीरू ने वैसा ही किया और सूखा कुआं पानी से भर गया। इस चमत्कार को देखकर राजा सहित सभी लोग खुश हो गए लेकिन वीरू ने राजा को कहा कि अगर वह इस कुएं का पानी पीएगा तो उसे एक गंभीर त्वचा रोग होगा। इसी कारण से राजा ने राज्य छोड़ दिया और दिल्ली चले गए जहाँ उन्होंने राजा “जल्लालुद्दीन” के अधीन सेवा शुरू की। वह अपनी ईमानदारी और बहादुरी के बल पर उच्च पद तक पहुंचे। उन्होंने जल्लालुदीन को सुंदर होने के कारण उन्हें जल्लालुदीन की बेटी से राजा को बिना बताये विवाह कर लिया। जल्लालुदीन इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर सका। उन्होंने विक्रम देव को जम्मू राज्य की सीमा पर कत्ल कर दिया। जबकि जल्लालुदीन ने अपनी बेटी को जंगल में जिंदा दफनाने का आदेश दिया और सैनिकों ने उसे दफन कर दिया। कहते है कि जिस समय उसे दफनाया गया वो गर्भवती थी और भगवान की कृपा से मजदूरों ने उसे दफनाकर कुछ हवा के छेद छोड़ दिए जिससे बच्चे को जमीन के अंदर सांस लेने में मदद मिली। इसलिए एक समय पर बच्चे का जन्म जमीन के अंदर ही हुआ और वह वहीं पर बढ़ता रहा। एक दिन जल्लालुदीन के कुछ लोग जंगल में प्रार्थना कर रहे थे, उन्होंने देखा कि एक बच्चा जमीन में आधा धंसा हुआ पर खेल रहा है, उन्होंने उस लड़के को देखा और उसे पकड़कर राजा के दरबार में ले आए। राजा एक लड़का पाकर खुश हो गया क्योंकि परिवार में उसका कोई पुत्र नहीं था, उसने लड़के का नाम “गोरिया” रखा क्योंकि वह (कबर) से निकला था। समय के साथ गोरिया काफी शरारती होता गया और बड़े होने पर उसने जल्लालुदीन को छोड़ दिया। वह राजा गोविंद के राजघराने में चले गए और उन्हें वहां अंगरक्षक के रूप में रखा गया। अपनी मेहनत और बहादुरी के बल पर कुछ समय बाद वह राजा कौर के राज्य में वजीर के रूप में आए और उसके बाद वो राजा बने। राजा बनने के बाद उन्होंने प्रजा पर अत्याचार शुरू कर दिए। कहते है कि गोरिया ने अपने राज्य के एक दर्जी को बिना सुई धागे के सूट बनाने का आदेश दिया। दर्जी परेशान हो गया पर उसकी भेंट गुरू गोरख नाथ से हुई तो उन्होंने उसे एक दिव्य मंत्र दिया जिससे दर्जी ने बिना सुई धागे के सूट बनाकर राजा को दिया। राजा ने उस सूट को देखा तो वह हैरान रह गया और दर्जी से पूछा की सच बोलो यह सूट किसने बनाया। तो दर्जी ने साधु वाली पूरी कहानी राजा को सुना दी। राजा के कहने पर दर्जी ने साधु को राजा के महल में बुलाया और जब राजा गोरिया ने गुरु गोरख नाथ जी का आध्यात्मिक चेहरा देखा तो वह अपने घुटनों पर बैठ गया और साधु के पैर को छू लिया और उसके साथ जाने की अनुमति देने की प्रार्थना की लेकिन गुरु गोरख नाथ जी ने यह कहते हुए उसका अनुरोध अस्वीकार कर दिया। एक राजा साधु नहीं हो सकता क्योंकि उसे धन और संपत्ति आदि सहित प्रत्येक वस्तु का त्याग करना पड़ता है, लेकिन राजा ने बताया कि वह सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार है और वह इस कृत्रिम जीवन से तंग आ चुका है और उनका शिष्य बनना चाहता है। अंततः गुरु गोरख नाथ जी ने उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार किया।
कहते है कि गोरिया गुरू गोरख नाथ के साथ तपोवन में चले गए और गुरू जी ने उन्हें वहीं पर तप करने के लिए कहा और स्वयं आगे निकल गए लेकिन गुरू की आज्ञा का चेले ने मान रखा और कठिन तप में लीन हो गए। करीब 12 वर्ष बाद जब गुरू गोरख नाथ ज्वाला जी पहुंचे तो उन्हंे ध्यान आया कि उन्होंने एक शिष्य को तपोवन में छोड़ा था। वो उसी क्षण उसे लेने के लिए पहुंच गए। लेकिन उन्हें शिष्य नहीं मिला इस पर उन्होंने वहां के चरवाहों से पूछा कि 12 वर्ष पूर्व उन्होंने अपने एक शिष्य को तपक रने के लिए इसी स्थान पर छोड़ा था क्या उन्हें उनकी जानकारी है तो चरवाहों ने बताया कि कुछ समय तक तो वो तप करते रहे लेकिन बाद में वो हडिडयों का ढांचा बने और फिर एक बरमी में तब्दील हो गए। आज वहां पर मात्र एक ज्योति जलती है। गुरू जी वहां पहुंचे और आवाज गोरिया को आवाज लगाई इस पर गोरिया ने कहा कि वो उठ नहीं सकता है तो गुरू जी ने उन्हें बरमी से बाहर निकाला तो देखा कि अब वो योगी बनने योग्य बन गए है। उन्होंने उन्हें सिद्ध गोरिया का नाम दिया और अपने साथ टीला योगियां ले गए। वहां पर उन्होंने प्रधान साधू कपला पीर से सिद्ध गोरिया के कान में छेद करवाये और उन्हें नाथ समुदाय के संस्कार प्रदान किए। कुछ समय वहां बिताने के बाद उन्होंने गुरू जी से देश भ्रमण की आज्ञा ली और भ्रमण पर निकल पड़े।
कहते है कि सिद्ध गोरिया ने अपनी यात्रा भूमिगत रूप से की और कई चमत्कार करने के बाद वो सुआंखां नगर पहुंचे और वहां पर उन्होंने कुछ युवाओं से दूध पीने की इच्छा जताई पर इन युवाओं ने उनका उपहास करते हुए उन्हें एक गरीब ब्राह्म्ण दित्तो के घर पर पता बता दिया और कहा कि वहां पर बहुत गाय है वहां दूध की कमी नहीं है। सिद्ध गोरिया दित्तो ब्राह्मण की कच्ची कोठड़ी के आगे पहुंचे और अलख जगाई। तभी दित्तो की पत्नी माई मथुरा उन्हें भिक्षा देने के लिए अनाज ढूंढने लगी पर एक चुटकी अनाज ही उसके पास था जो वो लेकर साधू को देने आई तो एक हाथ कोठड़ी से बाहर निकाल बोली तो साधू बाबा भिक्षा ले लो। तब सिद्ध गोरिया ने उनसे कहा कि वो ऐसे भिक्षा नहीं लेंगे बाहर आकर दो तो माई मथुरा बोली हम बहुत गरीब है मेरे तन पर एक भी वस्त्र नहीं है उसके पास एक ही चादर है जो उसके पति रोज भिक्षा मांगने के लिए ले जाते है और जब वो वापिस आते है तो उसे पहनकर वो घर के कार्य करती है। इस पर बाबा सिद्ध गोरिया ने उन्हें अपना सवा गज तोलिया दिया और बोले इसे झाड़ कर ले लो। जैसे ही माई ने वो तोलिया झाड़ा और अपने शरीर पर लपेटने लगी तो वो लंबा होता गया और साड़ी की तरह माई के शरीर पर लिपट गया। इसके बाद वो बाहर आंई और उन्हें भिक्षा देने लगी तो सिद्ध गोरिया ने दूध पीने की इच्छा जताई पर उसके पास दूध नहीं था वो साधू को घर बिठाकर दूध मांगने के लिए चली गई। कई घरों में मांगने पर भी उसे दूध नहीं मिला तो माई निराश होकर रोने लगी। तभी अचानक से उनके खुद के वक्ष से दूध की धाराएं फूट पड़ी। उन्होंने एस दूध को कटोरे में डाला और साधू को दे दिया। सिद्ध गोरिया ने दूध को पिया और तृप्त हो गए। उन्होंने पूछा माई इस दूध से हमारी त्रिशना शांत हो गई यह दूध किसका था तो माई ने कहा कि साधू महाराज यह मेरा दूध था। यह सुन बाबा सिद्ध गोरिया बोले तो माई आज से तेरा और मेरा नाथ मां बेटे का है। इसके बाद उन्होंने मां की सेवा करने के लिए मां मथुरा के घर पर रहना शुरू कर दिया। गोरिया ने उस कोठड़ी के सामने एक सूखे वटवृक्ष पर अपनी पोटली को टांग दिया और नीचे धूना लगा बैठ गए। शाम को जब दित्तो ब्राह्मण आया तो मथुरा ने दिन का पूरा वृतांत उन्हें सुनाया। इस पर सिद्ध गोरिया ने अपना ध्यान खोला और सामने खड़े पिता को प्रमाण कर सूखे पेड़ की तरफ देखा तो वो उसी क्षण हरा भरा हो गया। ब्राह्मण की कच्ची कोठड़ी एक महल में तब्दील हो गई। गोरिया ने अपने माता पिता को धनवान कर दिया। इसके बाद उनकी ख्याती दूर दूर तक फैल गई और वो अपने चमत्कारों से लोगों के कष्ट दूर करने लग गए। कहते है कि गुरू गोरख नाथ अपने चेलों व प्रधान शिष्य कपला पीर के साथ जब स्वांखा आए तो वहां पर सिद्ध गोरिया की ख्याती के किस्से सुनकर प्रसंन हो गए पर कपला पीर खुद को उनसे बड़ा शिष्य मानते थे ऐसे में एक समय कपला पीर और सिद्ध गोरिया में मल युद्ध हो गया जिसमें दोनों ने अपनी अपनी करामात दिखाई। कपला पीर शेर अपने तप से शेर पर सवार हो गए तो सिद्ध गोरिया ने कच्ची दिवार को ही अपना वाहन बना लिया। दोनों भयंकर घमासान हुआ और अंत में क्रोध में आकर सिद्ध गोरिया ने अपने दंड से कपला पीर के शेर को मार डाला और उन्हें एक बाजू के पकड़ पर फैंक दिया। लेकिन कपला पीर करीब डेढ़ कोस दूर राहड़ा गांव में जाकर गिरे। इस घटना के बाद सिद्ध गोरिया ने गुरू गोरखनाथ से आज्ञा ली और कहा कि अब इस लीला को समाप्त करने का समय आ गया है। उन्होंने अपनी माता पिता व छोटे भाई के सिर पर सरोवर के किनारे हाथ रखा तो वहीं समां गए और उन्होंने स्वयं भी चिर समाधि ले ली। उनके अंगरक्षक भैरोनाथ का स्थान भी आज यहां मौजूद है। आज लोग इस पवित्र स्थान पर आस्था और विश्वास रखते हैं और हर साल एक वार्षिक सार्वजनिक मेला आयोजित किया जाता है, जो सात दिनों तक चलता है, जिसमें भक्त केवल जम्मू-कश्मीर से ही नहीं पंजाब, हरियाणा, यूपी और देश के अन्य हिस्सों से भी आते है।

लेखक अश्विनी गुप्ता जम्मू

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