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ख़ामोशी की तालीम — जब जवाब देना ज़रूरी न हो | SufiPost

 ख़ामोशी की तालीम — जब जवाब देना ज़रूरी न हो



कभी-कभी जवाब देने से नहीं, चुप रहने से रूह बोलती है।

सूफ़ी रास्ते में ख़ामोशी को एक इबादत माना गया है — क्योंकि जब ज़ुबान रुकती है, दिल बोलने लगता है।


हज़रत अली (र.अ.) ने फरमाया:


“ख़ामोशी अक़्ल की ज़ीनत है, और बोलना नफ़्स का इम्तेहान।”


आज की दुनिया में हर कोई सुना जाना चाहता है, पर कोई सुनना नहीं चाहता।

यहीं से शोर शुरू होता है — सोशल मीडिया का, गुस्से का, बहसों का।

पर सूफ़ी सिखाते हैं कि जो चुप रहना सीख गया, उसने सुकून पा लिया।


जब तुम किसी की बात पर ग़ुस्सा महसूस करो,

थोड़ा ठहरो… कुछ मत कहो।

उस पल में तेरी ख़ामोशी तेरे रब की हिफ़ाज़त बन जाती है।

क्योंकि अल्लाह के नेक बंदे अपने लफ़्ज़ों को तलवार नहीं, मरहम बनाते हैं।


ख़ामोशी का मतलब डरना नहीं —

बल्कि अपने नफ़्स को काबू में रखना है।

हर बहस में जीतने से बेहतर है —

खुद पर काबू पा लेना।


कभी-कभी जवाब न देना भी एक जवाब होता है,

और वो जवाब रूह सुनती है, लोग नहीं।





💠 ख़ामोशी वो ज़ुबान है जो सिर्फ़ दिल वाले समझते हैं।जुड़िए SufiPost.com के साथ —जहाँ हर शब्द नहीं, हर सुकून बोलता है।


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